Wednesday, 31 December 2008

निर्वाणषटक पर विवेचन - श्लोक ४

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् । न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ४ ॥

पाप तथा पुण्य और सुख तथा दुःख यह भावनाए मनसे संलग्न होती है। अब जब मन पूर्णतः विकारमुक्त हो चुका है, तब वहा ना पाप - पुण्य की मोजदात है ना सुख दुःख की लहरें। ना मन आनंदसे भर जायेगा ना दुःख से व्यतिथ होगा। क्योंकी मै स्थितप्रज्ञ हो चुका हूं। मंत्र का पठन, तिर्थों का दर्शन, वेदपठण, तथा यज्ञयाग इत्यादि क्रिया हम अलग अलग कारणों के लिये करते है। कुछ लोग यह क्रिया रोज ही करते है तो कुछ प्रासंगीक। इन सब से मन को शांती मिलती है और साथही मे पुण्य का संचय भी होता है। लेकिन उपरोक्त बतायी बातोंके अनुसार पाप पुण्यकी कल्पनायें मन से निगडित है और वह मन के साथ ही विनाश पाती है। इसलिये पाप पुण्यका खयाल ही खत्म हुआ।

अब आचार्यजी कहते है, "अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता" भगवान श्रीकृष्ण भगवद गीता के १५वे अध्यायमे कहते है,

"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम ॥"

अर्थात, मै ही सर्व प्राणीजन के शरीर मे रहने वाला, प्राण तथा अपानसे संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकारके अन्न का पचन कराता हूं। आचार्यजी कहते है, " अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता". आचार्यजी को मालून है के अपने जठरमे भगवान परमात्माका वास है। इसलिये भोजन, मतलब निसर्गशृंखलासे निर्माण हुआ ब्रह्मरूप भोजन मतल अन्न यह भी भगवंतही है। मै ही अन्न खाने वाला, मै ही अन्न, और अन्न सेवन कर के तृप्त होने वाला भोक्ता भी मै ही। अन्न भी मै, अन्न का सेवन करनेवाला भी मै, और उसका पचन करनेवाला भी मै। अन्नरस के तृप्ती का आस्वाद लेनेवाला भी मै। करण, कारण कर्ता सब कुछ मै ही हू। अर्थात भगवंत हू। जैसे भगवदगीता के चौथे अध्यायमे भगवंत कहते है,

"ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्राह्मणा हुतम ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥"

अर्थात, यज्ञमे अर्पण अर्थात स्त्रुवा आदि ही ब्रह्म है। हवन करनेका हर द्रव्य भी ब्रह्म है। वैसे ही ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमे आहूती देने की क्रिया भी ब्रह्म है। इस ब्रह्मकर्ममे स्थित उस योगी को मिलनेवाला फल भी ब्रह्म ही है।

यज्ञ भी भगवंत, स्त्रुवा भी भगवंत, द्रव्य भी भगवंत, कर्ता भी भगवंत, अग्नी भी भगवंत, अग्नी भी भगवंत, फल भी भगवंत, सब कुछ भगवंत।

ऐसे ही आचार्य जानते है के भोजन भी भगवंतरूप है। भोज्य तथा भोक्ता भी भगवंत रुप है। 'मै' ऐस कुछ भी नही है। इसलिये 'अहं भाव' पूर्णतः जानेसे जो बाकी रहा वह शिवरूप आत्मा। इसलिये आचार्यजी कहते है के मै सत चित आनंदरूप मंगलरूप शिवरूप हूं।

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