Wednesday 31 December 2008

निर्वाणषटक पर विवेचन - श्लोक ३

न मे द्वेष रागो न मे लोभ मोहौ । मदे नैव मे नैव मात्सर्यभाव ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ३ ॥

द्वेष, राग, लोभ, मोह, मद, तथा मात्सर्य (मत्सर) यह सारे मनके भाव। लेकीन पहले दिये दो श्लोकोंसे यह ध्यान मे आता है के जहां अष्टधा प्रकृती अपनी नही, वहीं उस प्रकृतीमे बसा मन भी अपना नही। और इसलिये उस मन से संलग्न भाव भी अपने नही। मेरा मन ही मुझमे ना होने के कारण, तथा मेरा अहंकार पुर्णतः नाश होनेके कारण मन के सारे विकार नाश हो गये। वह भावनाये जाने के कारण उनकी वजहसे आनेवाले दोष भी नाश हो गये। जैसे किसी गहने से मिलावट निकालनेके बाद १६ आने सोना पिछे रह जाता है, वैसे ही "अहं भाव" नष्ट होनेसे सिर्फ़ आत्मारूप परमेश्वर का अंश रह जाता है। इसलिये आचार्य कहते है के, मन के सारे विकार नष्ट होनेसे मै निर्विकार हो गया हू। सत चित आनंदरूप शिवरूप हो गया हू।

5 comments:

  1. खूबसूरत गद्य, अद्भुत वाक्यरचना...ब्लॉगिंग में सक्रियता यूं ही बनाए रखें। कभी हमारे चौराहे--www.chauraha1.blogspot.com पर भी आएं.

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  2. भाव और विचार के श्रेष्ठ समन्वय से अभिव्यक्ति प्रखर हो गई है । विषय का विवेचन अच्छा किया है । भाषिक पक्ष भी बेहतर है । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
    मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  3. चण्डीदत्तजी, संगीताजी और अशोकजी आप तीनोंका धन्यवाद।

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  4. आज आपका ब्लॉग देखा बहुत अच्छा लगा.... मेरी कामना है कि आपके शब्दों में नयी ऊर्जा, व्यापक अर्थ और असीम संप्रेषण की संभावनाएं फलीभूत हों जिससे वे जन-सरोकारों की अभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम बन सकें....

    कभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें.........

    http://www.hindi-nikash.blogspot.com


    सादर-
    आनंदकृष्ण, जबलपुर.

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  5. रसात्मक और सुंदर अभिव्यक्ति

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