Sunday 31 October 2010

स्वधर्म

जन्मतः जो अपने हिस्से आता है उस कर्म को सही तरीके से पुर्ण करना ही स्वधर्म होता है। सुख - दुःख के बारे मे सोचे बिना, फायदा नुकसान के बारे मे सोचे बिना किया हुआ कर्म ही स्वधर्म है। कर्तव्य पालन भी स्वधर्म है। पढाई कर अच्छे गुणोंसे उत्तिर्ण होना विद्यार्थी का स्वधर्म है। अपने माता - पिता हम चुन नही सकते। जो माता पिता हम पाते है उनकी सेवा करना अपना स्वधर्म है। नकारात्म विचारसरणी तथा नकारात्मक वृत्ती की वजह से कर्तव्य का विस्मरण होता है। इस वजह से कर्तव्य पालन नही हो पाता है।
एक इन्सान का स्वधर्म दुसरे इन्सान का स्वधर्म होगा ही ऐसा नही हो सकता। और इसलिये अपना स्वधर्म अच्छा और दुसरे का स्वधर्म गलत ये भी सही नही है। जैसे एक डॉक्टर का धर्म है मरीज को सही दवा दे जल्दीसे ठीक करना। और एक गायक का धर्म है गाना गा कर लोगोंका मनोरंजन करना। अब अगर डॉक्टर दवाई देना छोड गाना गाये तो ये तो गलत बात हुई ना। और गायक गाना छोड दवा देने लगे तो ये भी गलत ही है। लेकिन इसलिये गायकी अच्छी और डॉक्टरी बुरी ऐसा नही होता। या डॉक्टरी अच्छी और गायकी बुरी ऐसा नही होता।
इसलिये स्वधर्म अपनेतक ही सिमित होता है। उसमे श्रेष्ठ - कनिष्ठ ऐसा कुछ नही होता। अपना छोड दुसरे के स्वधर्म का स्विकार भी गलत है। दो स्वधर्म अलग हो सकते है।
समय और उम्र के अनुसार स्वधर्म बदलता है। एक ही समयमे इन्सान को अलग अलग भुमिकाऐं निभानी पडती है। दो परस्पर विरोधी कर्तव्योंमे एक स्वधर्म को चुनना पडता है। उस वक्त कौनसे स्वधर्म का पहले पालन करना है और कौनसा बाद मे ये चुनना अनिवार्य होता है।
स्वधर्म मे श्रेष्ठ - कनिष्ठ ऐसा कुछ नही होता। लेकिन कौनसा कर्म पहले करना है और कौनसा बाद मे ये अपने हाथ होता है। भगवद्गिता के अनुसार 'स्वधर्म' और 'परधर्म' चुनाव अपने हाथ नही होता और उसका फल भी अपने हाथ नही होता। स्वधर्म जन्म के साथ ही हमे मिलता है। इसलिये हम उसे चुन नही सकते।

श्रीमद़ भगवद्गीता - अध्याय २