Wednesday 14 January 2009

निर्वाणषटक पर विवेचन - श्लोक ६

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो । विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेंद्रियाणां ।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बंध । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ६ ॥

निर्वाणषटक के इस छटे श्लोक मे आचार्य, वह शिवरूप है इस बात को अधिक स्पष्ट करते है। वह कहते है,"मेरा कोई विकल्प नही। वैसे ही मै निराकार रूप हू। मेरा एक आकार नही है। मै और भगवंत एकही विभूती। जैसे भगवंत निर्विकार वैसा ही मै। इसलिये सारे आकार भगवान ही से निकलकर वहीं विलीन हो जाते है, नाश होते है। इन सारे आकारोंमे अपने इंद्रिय भी समाविष्ट है। क्योंकी वह किसी भी आकार से अलग नही। इसीलिये मै शिवरूप हूं।

सदा मे समत्वं - भगवंत के मन मे हमेशा समत्व की भावना रहती है। "समत्वं योग मुच्यते" अर्थात, सबको एक समानसे देखने वाले भगवंत ही होने के कारण, आचार्य मे बसा शिवरूपभी भगवान को दिखता है। इसलिये आचार्यजी कहते है मै बंधमुक्त हूं। समत्व भावना होने के कारण, कर्मबंधनका डर नही है। कोई भी बंधन ना होने के कारण आचार्य मुक्त है। इसलिये वह कहते है मै मुक्त हूं, शिवरूप हूं, मंगलरूप हूं। सत चित आनंदरूप हूं। मै गुणातीत हूं, स्थितप्रज्ञ हूं। मै शिव हूं।

खुद के बारेमे पूर्णतः यकीन होनेके कारण अपने गुरू के "कौन है?" इस सवाल को वह मै कोई और नही बल्की सत चित आनंदरूप, शिवरूप हूं यह जवाब दिया। आचार्यजी यह पुरे यकीन से कह सकते है क्योंकी उन्होने आत्म परीक्षण किया है। उन्होने कहे हर एक शब्द को एक गहरा अर्थ है यह वो जानते है।

3 comments:

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  2. निर्वाण षटकम् च्या ह्या श्लोका बद्दल आभार.

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  3. मला हे स्तोत्र फार आवडतं.माझ्या नित्यपठणात ते आहे.माझ्या आयुष्यात ह्या स्तोत्राचे फार महत्व आहे.जेंव्हा जेंव्हा संकटे समोर असतात तेंव्हा तेंव्हा ह्यानेच मला जगायची प्रेरणा मिळते.

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