अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो । विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेंद्रियाणां ।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बंध । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ६ ॥
निर्वाणषटक के इस छटे श्लोक मे आचार्य, वह शिवरूप है इस बात को अधिक स्पष्ट करते है। वह कहते है,"मेरा कोई विकल्प नही। वैसे ही मै निराकार रूप हू। मेरा एक आकार नही है। मै और भगवंत एकही विभूती। जैसे भगवंत निर्विकार वैसा ही मै। इसलिये सारे आकार भगवान ही से निकलकर वहीं विलीन हो जाते है, नाश होते है। इन सारे आकारोंमे अपने इंद्रिय भी समाविष्ट है। क्योंकी वह किसी भी आकार से अलग नही। इसीलिये मै शिवरूप हूं।
सदा मे समत्वं - भगवंत के मन मे हमेशा समत्व की भावना रहती है। "समत्वं योग मुच्यते" अर्थात, सबको एक समानसे देखने वाले भगवंत ही होने के कारण, आचार्य मे बसा शिवरूपभी भगवान को दिखता है। इसलिये आचार्यजी कहते है मै बंधमुक्त हूं। समत्व भावना होने के कारण, कर्मबंधनका डर नही है। कोई भी बंधन ना होने के कारण आचार्य मुक्त है। इसलिये वह कहते है मै मुक्त हूं, शिवरूप हूं, मंगलरूप हूं। सत चित आनंदरूप हूं। मै गुणातीत हूं, स्थितप्रज्ञ हूं। मै शिव हूं।
खुद के बारेमे पूर्णतः यकीन होनेके कारण अपने गुरू के "कौन है?" इस सवाल को वह मै कोई और नही बल्की सत चित आनंदरूप, शिवरूप हूं यह जवाब दिया। आचार्यजी यह पुरे यकीन से कह सकते है क्योंकी उन्होने आत्म परीक्षण किया है। उन्होने कहे हर एक शब्द को एक गहरा अर्थ है यह वो जानते है।
Wednesday, 14 January 2009
Saturday, 10 January 2009
निर्वाणषटक पर विवेचन - श्लोक ५
न मे मृत्यू न मे जातीभेदः । पिता नैव मे नैव माता न जन्मः ।
न बंधुर्न मित्रं गुरू नैव शिष्यः । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ५॥
सब कुछ भगवान स्वरूप हो चुका है। अब आचार्य इस श्लोक मे भगवद गीता का मूल तत्व, पुनर्जन्म, इस बारे मे कहते है। भगवद्गीता के तत्व के अनुसार, जो जन्म लेता है उसे मृत्यू निश्चित है। इस जनम मे कार्य कर, उसका फल चखने के लिये पुनः जिवित होना सुनिश्चित है। लेकिन मानव जीवन तब ही सार्थक हो सकता है, जब वह मोक्ष प्राप्ती करता है और पुनर्जनम के चक्रव्युह से छुटकारा पा सकता है। यह सारा ज्ञान आचार्यजी को है। इसलिये आचार्यजी इस श्लोक मे कहते है "मेरे मन मे मृत्यू प्रती कोई शंका नही। क्योंकी जानेवाला तो मेरा देह, मेरा शरीर है, मेरी आत्मा नही। अर्थात मै अविनाशी हूं। और आज तक का मेरा कर्म मैने भगवान को ही अर्पण किय है। इसलिये उस कर्म का और कर्म के फल का मुझे कोई बंधन नही। इसलिये उस कर्म के फल का भोग लेने के लिये पुनः जन्म ले वापस आने का मेरे मन मे डर नही। अगला जनम कौनसा होगा, मेरी जात कौनसी होगी इस बारे मे मै सोचता ही नही हूं। क्योंकी इस जनम मे मै मुक्त हो जाउंगा इस बात का मुझे पुरा यकीन है। इसलिये मेरे मन मे मृत्यू को लेकर कोई शंका नही है।"
"पिता नैव माता न जन्मः" ऐसा आचार्य कहते है। किसी भी सजीव का जन्म होने के लिये माता तथा पिता एक माध्यम मात्र होते है। लेकिन जनम ही ना होने के कारण, न माता रहेगी ना पिता और न बंधू होगा ना कोई बांधव। अब रहे शिष्य और गुरू। आचार्य कहते है, " मोक्षपद अटल है। इसलिये शिवरूप गुरू मे समा जाना, एकरूप होना सुनिश्चित ही है। गुरू से एकरूप होने से गुरू शिष्य का अद्वैत रूप हो चुका है। इसलिये वे एक दुसरे से अलग नही है। वे एकरूप है। यह एकरूप ही शिवरूप है।
न बंधुर्न मित्रं गुरू नैव शिष्यः । चिदानंदरुप शिवोहं शिवोहं ॥ ५॥
सब कुछ भगवान स्वरूप हो चुका है। अब आचार्य इस श्लोक मे भगवद गीता का मूल तत्व, पुनर्जन्म, इस बारे मे कहते है। भगवद्गीता के तत्व के अनुसार, जो जन्म लेता है उसे मृत्यू निश्चित है। इस जनम मे कार्य कर, उसका फल चखने के लिये पुनः जिवित होना सुनिश्चित है। लेकिन मानव जीवन तब ही सार्थक हो सकता है, जब वह मोक्ष प्राप्ती करता है और पुनर्जनम के चक्रव्युह से छुटकारा पा सकता है। यह सारा ज्ञान आचार्यजी को है। इसलिये आचार्यजी इस श्लोक मे कहते है "मेरे मन मे मृत्यू प्रती कोई शंका नही। क्योंकी जानेवाला तो मेरा देह, मेरा शरीर है, मेरी आत्मा नही। अर्थात मै अविनाशी हूं। और आज तक का मेरा कर्म मैने भगवान को ही अर्पण किय है। इसलिये उस कर्म का और कर्म के फल का मुझे कोई बंधन नही। इसलिये उस कर्म के फल का भोग लेने के लिये पुनः जन्म ले वापस आने का मेरे मन मे डर नही। अगला जनम कौनसा होगा, मेरी जात कौनसी होगी इस बारे मे मै सोचता ही नही हूं। क्योंकी इस जनम मे मै मुक्त हो जाउंगा इस बात का मुझे पुरा यकीन है। इसलिये मेरे मन मे मृत्यू को लेकर कोई शंका नही है।"
"पिता नैव माता न जन्मः" ऐसा आचार्य कहते है। किसी भी सजीव का जन्म होने के लिये माता तथा पिता एक माध्यम मात्र होते है। लेकिन जनम ही ना होने के कारण, न माता रहेगी ना पिता और न बंधू होगा ना कोई बांधव। अब रहे शिष्य और गुरू। आचार्य कहते है, " मोक्षपद अटल है। इसलिये शिवरूप गुरू मे समा जाना, एकरूप होना सुनिश्चित ही है। गुरू से एकरूप होने से गुरू शिष्य का अद्वैत रूप हो चुका है। इसलिये वे एक दुसरे से अलग नही है। वे एकरूप है। यह एकरूप ही शिवरूप है।
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